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समि॑न्द्र रा॒या समि॒षा र॑भेमहि॒ सं वाजे॑भिः पुरुश्च॒न्द्रैर॒भिद्यु॑भिः। सं दे॒व्या प्रम॑त्या वी॒रशु॑ष्मया॒ गोअ॑ग्र॒याश्वा॑वत्या रभेमहि ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sam indra rāyā sam iṣā rabhemahi saṁ vājebhiḥ puruścandrair abhidyubhiḥ | saṁ devyā pramatyā vīraśuṣmayā goagrayāśvāvatyā rabhemahi ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सम्। इ॒न्द्र॒। रा॒या। सम्। इ॒षा। र॒भे॒म॒हि॒। सम्। वाजे॑भिः। पु॒रु॒ऽच॒न्द्रैः। अ॒भिद्यु॑ऽभिः। सम्। दे॒व्या। प्रऽम॑त्या। वी॒रऽशु॑ष्मया। गोऽअ॑ग्रया। अश्व॑ऽवत्या। र॒भे॒म॒हि॒ ॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:53» मन्त्र:5 | अष्टक:1» अध्याय:4» वर्ग:15» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:10» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर इसके सहाय से मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) सभाध्यक्ष ! जैसे हम लोग आप के सहाय से (सम्राया) उत्तम राज्यलक्ष्मी (समिषा) धर्म की इच्छा वा अन्नादि (अभिद्युभिः) विद्या व्यवहार और प्रकाशयुक्त (पुरुश्चन्द्रैः) बहुत आह्लादकारक सुवर्ण और उत्तम चांदी आदि धातु (सं वाजेभिः) विज्ञानादि गुण वा संग्राम तथा (प्रमत्या) उत्तम मतियुक्त (देव्या) दिव्यगुण सहित विद्या से युक्त सेना से (गोअग्रया) श्रेष्ठ इन्द्रिय गौ और पृथिवी से युक्त (वीरशुष्मया) शूरवीर योद्धाओं के बल से युक्त (अश्ववत्या) प्रशंसनीय वेग, बलयुक्त घोड़ेवाली सेना के साथ वर्त्तमान होके शत्रुओं के साथ (संरभेमहि) अच्छे प्रकार संग्राम को करें, इस सब कार्य्य को करके लौकिक और पारमार्थिक सुखों को (रभेमहि) सिद्ध करें ॥ ५ ॥
भावार्थभाषाः - कोई भी मनुष्य विद्वान् की सहायता के विना अच्छे प्रकार पुरुषार्थ की सिद्धि को प्राप्त नहीं हो सकता और निश्चय करके बल, आरोग्य, पूर्ण सामग्री और उत्तम शिक्षा से युक्त धार्मिक, शूरवीर युक्त चतुरङ्गिणी अर्थात् चौतर्फी अङ्ग से युक्त सेना के विना शत्रुओं का पराजय वा विजय के प्राप्त होने को समर्थ नहीं हो सकता, इससे मनुष्यों को इन कार्यों की उन्नति करनी चाहिये ॥ ५ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनरेतत्सहायेन मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

हे इन्द्र सभाध्यक्ष ! यथा वयं त्वत्सहायेन सम्राया समिषा पुरुश्चन्द्रैरभिद्युभिः संवाजेभिः प्रमत्या देव्या गोऽअग्रयाऽश्वावत्या वीरशुष्मया सेनया सह वर्त्तमानाः शत्रुभिः संरभेमहि सम्यक् संग्रामं कुर्याम तथैतत्कृत्वा लौकिकपारमार्थिकान् व्यवहारान् रभेमहि तं त्वं संसाधय ॥ ५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सम्) प्राप्तौ (इन्द्र) परमैश्वर्यप्रदेश्वर सभाध्यक्ष वा (राया) राज्यपरमश्रिया (सम्) सम्यक् (इषा) धर्मेच्छयान्नादिना वा (रभेमहि) आरम्भं कुर्याम (सम्) श्रैष्ठ्येऽर्थे (वाजेभिः) विज्ञानादिगुणैः संग्रामैर्वा (पुरुश्चन्द्रैः) पुरवो बहवश्चन्द्रा आह्लादकारकाः सुवर्णरजतादयो धातवो वा येभ्यस्तैः (अभिद्युभिः) अभितो दिवः विद्याव्यवहारप्रकाशा येषु तैः (सम्) श्लेषे (देव्या) दिव्यगुणसहितया विद्यायुक्त्या सेनया (प्रमत्या) प्रकृष्टा मतिर्मननं यस्यां तया (वीरशुष्मया) वीराणां योद्धॄणां शुष्माणि बलानि यस्यां तया (गोअग्रया) गाव इन्द्रियाणि धेनवः पृथिव्यो वाऽग्राः श्रेष्ठा यस्यां तया। अत्र सर्वत्र विभाषा गोः। (अष्टा०६.१.१२२) अनेन प्रकृतिभावः। (अश्ववत्या) प्रशस्ता वेगबलयुक्ता अश्वा विद्यन्ते यस्यां तया (रभेमहि) शत्रुभिः सह युध्येमहि ॥ ५ ॥
भावार्थभाषाः - नहि कश्चिदपि विद्वत्सहायमन्तरा सम्यक् पुरुषार्थसिद्धिमाप्नोति नैव किल बलारोग्यपूर्णसामग्रीसुशिक्षितया धार्मिकशूरवीरयुक्त्या चतुरङ्गिण्या सेनया विना कश्चिच्छत्रुपराजयं कृत्वा विजयं प्राप्तुं शक्नोति, तस्मादेतत्सर्वदोन्नेयमिति ॥ ५ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - कोणत्याही माणसाला विद्वानाच्या मदतीशिवाय चांगल्या प्रकारे पुरुषार्थाची सिद्धी प्राप्त करता येत नाही व निश्चयपूर्वक बल, आरोग्य, पूर्ण सामग्री व उत्तम शिक्षणाने धार्मिक शूरवीर युक्त चतुरंगी सेना असल्याशिवाय शत्रूंचा पराजय करून विजय प्राप्त करण्यास समर्थ बनू शकत नाही यामुळे माणसांनी हे कार्य वृद्धिंगत केले पाहिजे. ॥ ५ ॥